(अमरनाथ तिवारी)। राष्ट्र क्या है? क्या यहाँ की केवल नदियाँ या पर्वत हैं? हम लोग भारत के विचार को यहाँ के समाज का विचार मानते हैं, किन्तु हम जब कहते हैं कि सब लोग राष्ट्र के लिये विचार करें, तब यह भावना आन्तरिक होती है। हम अंग्रजों के विरुद्ध लड़ रहे थे, इसी आन्तरिक ऊर्मि के कारण। अंग्रजों के चले जाने के बाद यहाँ का राज्य चलाने का दायित्व हम लोगों पर आया, किन्तु हम पर कहने का ठीक ठीक अभिप्राय क्या है? किस पर? इसका गम्भीर विचार उन दिनों नहीं किया गया। अंग्रेजों के जाने के बाद हमें राज्य मिला, किन्तु हमारा राज्य माने किसका राज्य? इस देश का वंश-वृक्ष कौन-सा है? इस देश में राष्ट्र-जीवन का निर्माण किसने किया? हमें एक सत्य को स्वीकारना पड़ेगा कि हमारा राष्ट्र-जीवन हिन्दू-राष्ट्र-जीवन है। और कोई यहाँ आता है तो उसे यहाँ हिन्दू-राष्ट्र-जीवन के साथ तालमेल रखकर चलना होगा। ऐसा करने के लिये मूल मानदण्ड क्या हो, यह निश्चित करना होगा। उसके बाद ही धन तथा ऋण की गणना की जा सकती है। ज्वार देखते समय हम तापमापी (थर्मामीटर) में देखते हैं। उसमें समान्य की रेखा होती है। प्रत्यक्ष ताप उस रेखा के ऊपर है या नीचे? ऐसी गणना हम करते हैं। उसी प्रकार भारत की मानक रेखा हिन्दू-राष्ट्र ही है। यह सत्य सबको विदित है। कोई इसे प्रत्यक्ष रुप में कहे, न कहे, हमारा राष्ट्र-सूत्र हिन्दू-सूत्र है। इस समूचे देश को जोड़ने वाला यह सूत्र प्रचीनकाल से यहाँ विद्यमान है।' इन पंक्तियों में अपने राष्ट्रवादी विचारों की प्रखर अभिव्यक्ति करने वाले माँ भारती के सपूत पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म सोमवार अश्विन कृष्ण त्रयोदशी, संवत 1973; तदनुसार 25 सितम्बर, 1916 ई. को राजस्थान के धनकिया ग्राम में मातामह (नाना) के घर में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता का नाम रामप्यारी था। इनके पिता जी मथुरा जिला (उ.प्र.) के फराह गांव के निवासी थे, जो मथुरा में जलेसर मार्ग पर अवस्थित स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। इनकी माता जी धार्मिक प्रवृति की महिला थीं तथा इनके पितामह पण्डित हरिराम उपाध्याय अपने समय के प्रकांड ज्योतिर्वीद और मातामह पण्डित चन्नीलाल शुक्ल जयपुर-अजमेर रेल-मार्ग पर अवस्थित धनकिया ग्राम के रेलवे स्टेशन में स्टेशन-मास्टर थे।
पण्डित दीनदयाला उपाध्याय का पारिवारिक नाम 'दीना' था। इनके दो वर्ष छोटे भाई शिवदयाल थे, जिन्हें परिवार में 'शिव' कहा जाता था। समय के क्रूर प्रहार ने पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की परीक्षा बचपन से ही लेनी प्रारम्भ कर दी। जब ये ढ़ाई वर्ष के थे तभी इनके पिता का असमय देहावसान हो गया। आठ वर्ष के होते होते इनकी माता जी का भी स्वर्गवास हो गया। उन दिनों छोटे भाई शिवदयाल साढ़े छह वर्ष के थे। दोनों भाई मामा की छत्र-छाया में पले-बढ़े। शायद काल का क्रूर प्रहार दीनदयाल के सभी सांसारिक बन्धनों को तोड़ देना चाहता था। 18 नवम्बर, 1934 ई. को शिवदयाल की निमोनिया के कारण मृत्यु हो गयी। अब दीनदयाल अकेले थे, किन्तु ननिहाल के लोगों ने उन्हें अकेला नहीं होने दिया और पूर्ण वात्सल्य के साथ उनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके मामा श्री राधारमण शुक्ल, जो गंगापुर (राजस्थान) रेलवे स्टेशन में माल गार्ड के पद पर कार्यरत थे, के संरक्षण में हूई। छठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दीनदयाल उपाध्याय जी को सातवीं कक्षा में पढ़ने के लिये कोटा (राजस्थान) भेज दिया गया। यहा छात्रावास में रहकर उन्होंने सातवीं कक्षा उत्तीर्ण की और आगे की पढ़ाई के लिए अपने चचेरे मामा श्रीनारायण शुक्ल के पास रायगढ़ चले गये, जहाँ वे स्टेशन-मास्टर थे। नौवीं कक्षा के लिए पण्डित जी को सीकर के 'कल्याण हाईस्कूल' में प्रवेश लेना पड़ा, जहाँ वे दसवी की परीक्षा राजस्थान बोर्ड से सन 1935 में उत्तीर्ण किये। विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिये दीनदयाल जी को 2 सवर्ण पदक मिले। इतना ही नहीं सीकर के महाराजाधिराज ने भी उनकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर उन्हें 250 रुपये नकद पुरस्कार तथा 10 रुपये प्रति माह की छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दिया। आगे की शिक्षा के लिए दीनदयाल जी पिलानी के जी.डी. बिड़ला कालेज पहुँचे और छात्रावास में रहकर पढ़ने लगे। यहाँ भी उन्होंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। फलस्वरुप बोर्ड तथा विद्यालय की ओर से इन्हें 2 सवर्ण पदक प्रदान किया गया। सेठ घनश्यामदास बिड़ला ने इन्हें 250 रुपये नकद पुरस्कार तथा 20 रुपये प्रति माह की छात्रवृत्ति प्रदान किया। स्नातक की पढ़ाई कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कालेज से पूर्ण हुई। सनातन धर्म कालेज के छात्रावास में उनकी पढ़ाई के प्रति लगन एवं निष्ठा की चर्चा होती थी। अंग्रेजी में परास्नातक करने हेतु दीनदयाल जी आगरा के सेंट जान्स कालेज में प्रवेश लीये, किन्तु एक वर्ष की पढ़ाई के पश्चात मामा श्रीनारायण शुक्ल की पुत्री अर्थात उनकी ममेरी बहन रामदेवी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण आगरा अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यहाँ दीनदयाल जी ने अपनी जिम्मेदारी को पूर्णरूपेण निभाया और बहन की सेवा में लग गये, किन्तु वे बच न सकीं। इससे दीनदयाल जी बहुत दु:खी हुए और एम.ए. उत्तरार्ध की परीक्षा न दे सके। अब उन्होंने प्रयाग के गवर्नमेंट ट्रेनिंग कालेज से एल.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
छात्र जीवन से ही मेघावी, प्रतिभा सम्पन्न होने के साथ ही दीनदयाल जी नेतृत्व के गुणों से परिपूर्ण थे। कानपुर में दीनदयाल जी अनेक क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये। इनके व्यक्तित्व में जहाँ राजस्थान के विश्वविक्ष्रुत शौर्य का प्रभाव था, वहीं क्रांतिकारियों के तीर्थस्थल कानपुर का अदम्य उत्साह तथा धर्मप्राण तीर्थराज प्रयाग की पुण्य सलिल भगवद्बुद्धि की जीवन धारा भी विद्यमान थी।
श्री भाऊराव देवरस जी की प्रेरणा से इन्होंने 14 जनवरी, 1937 ई. को मकरसंक्रांति के शुभावसर पर कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिज्ञा ली। नवाबगंज में संघ की शाखाएँ लगने लगीं। उनके प्रयास से आगरा के राजा की मण्डी में शाखा स्थापित की गयी और इस प्रकार संघ की विचारधारा का प्रचार-प्रसार होने लगा। बापू राव मोघे, नानाजी देशमुख, बापू जोशी आदि बड़े नेताओं के सम्पर्क में आने के बाद दीनदयाल जी को सन 1942 ई. में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में संघ के प्रचार के लिए भेजा गया। वहा उन्होंने अपने मिलनसार स्वभाव तथा सरलता के कारण लोगों के ह्रदय में अपना अत्यंत आदरणीय स्थान बना लिया। फलतः शताधिक कार्यकर्ता संघ से जुड़े। दीनदयाल जी ने हाईस्कूल के विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क शिक्षण भी किया। प्रचार की द्रुत एवं तीव्र क्षमता के कारण सन 1945 ई. में दीनदयाल जी को सह-प्रान्त प्रचारक बनाया गया। भाऊराव देवरस जी प्रान्त प्रचारक थे। यहाँ इन्हें डा. कृष्णबिहारी, रामनाथ भल्ला, जयगोपल जी, कृष्णदत्त शर्मा, राजेन्द्र सिंह, कुंजबिहारी राठी, सत्यव्रत सिन्हा, विरेन भाई, रजनीकांत लाहिड़ी, विनय मुंजे, राजाभाऊ सावगावकर, मनोहर आठवले, गोपालराव कालिया, जुगादेबन्धु, कुरंजकरबंधु, डा. पी.के. बनर्जी आदि श्रेष्ठ महापुरुषों के सान्निध्य में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ, जहाँ इन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा एवं व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी।
सन 1947 ई. में पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की। इसके माध्यम से राष्ट्रधर्म (मासिक पत्रिका), 'पांच्यजन' (साप्ताहिक) एवं 'स्वदेश' (दैनिक) निकाले जाने लगे। इनके सम्पादन के रूप में बचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीशचन्द्र मिश्र, अटल बिहारी वाजपेयी, राजीवलोचन अग्निहोत्री, यादवराव देशमुख, तिलक सिंह परमार, महावीर प्रसाद त्रिपाठी आदि विद्वान थे। ज्वाला प्रसाद चतुर्वेदी तथा मनमोहन गुप्त इसके प्रबंधक थे। श्री राधेश्याम कपूर प्रकाशक थे।श्री बजरंगीशरण तिवारी एवं पानगी प्रेस व्यवस्थापक थे और नानाजी देशमुख इसके प्रबंध निदेशक थे।
शनैः शनैः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ख्याति प्राप्त करने लगा।काफी लोग जुड़ने लगे। कांग्रेस को ऐसा लगा कि उसकी विचारधारा सिकुड़ने लगी। सरकार ने इन समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया, किन्तु पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी ने 'पांच्यजन' पर प्रतिबंध लगाने के बाद 'हिमालय पत्रिका' नाम से दूसरा पत्र प्रकाशित करना आरंभ कर दिया। यह लोकप्रिय हुआ और सरकार की वक्र दृष्टि इस पर भी पड़ी। अन्ततः दीनदयाल जी ने 'देशभक्त' नामक तृतीय पत्र प्रकाशित किया। सरकार नि:सहाय हो गयी। अन्ततः सरकार ने दीनदयाल जी को पकड़ने की योजना बनायी, किन्तु तब तक वह उन्हें पकड़ नहीं पायी, जब तक कि वह स्वयं नहीं चाहे। यह देखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसके विरोध में सत्याग्रह किया। विरोध के सत्याग्रह का संचालन दीनदयाल जी के हाथ में था। सरकार के उत्तेजित करने के प्रयास के बावजूद यह आन्दोलन दीनदयाल जी की सूझबूझ व दूरदर्शिता के कारण शांतिपूर्ण ढंग से चला तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक नयी दिशा प्राप्त हुई।
वर्ष 1947 से 1949 के मध्य दीनदयाल जी के अनेक लेख प्रकाशित हुए, जिनमें निम्नलिखित लेखों की विशद चर्चा हुई।
1. भारतीय राष्ट्रधारा का पुण्य प्रवाह (गौतम बुद्ध से शंकराचार्य तक)
2. भगवान श्रीकृष्ण
3. भारतीय राजनीति की मौलिक भूलें
4. राष्ट्र-जीवन की समस्याएँ
5. लोकमान्य तिलक की राजनीति
6. धारा 144
7. राजनीतिक आय-व्यय
8. जीवन का ध्येय : राष्ट्रीय आत्मानुभूति
9. विजयदशमी
10. भारतीय संविधान पर एक दृष्टि
उपयुक्त लेखों के अतिरिक्त दीनदयाल जी ने दो महत्वपूर्ण पुस्तकों 1. 'सम्राट चंद्रगुप्त' 2. 'जगद्गुरु शंकराचार्य' का प्रणयन किया। 'सम्राट चंद्रगुप्त' सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हुई तथा लगभग समस्त भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। दीनदयाल जी ने अंग्रेजी पत्रिका 'आर्गेनाइजर' के लिए भी अनेक लेख लिखा। 'सम्राट चंद्रगुप्त' में दीनदयाल जी की प्रखर राष्ट्रवादी दृष्टि का उन्मेष हुआ है। दीनदयाल जी ने अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखा 'THE TOW PLANS : Promises, Performance, Prospects' (दो योजनाएँ: वायदे, अनुपालन, आसार)। पंचवर्षीय योजनाओं पर आधारित यह आर्थिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन करनेवाली श्रेष्ट पुस्तक है। इसके अतिरिक्त अनेक छोटी छोटी पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हुई हैं, जिनमें 'टैक्स अथवा लूट', अखण्ड भारत', 'हमारा कश्मीर' आदि प्रमुख हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि विषयों पर लेख लिखकर दीनदयाल जी ने जनमानस को चमत्कृत कर दिया। समस्त विषयों को स्वयं के दृष्टिकोण से देखने तथा राष्ट्रवाद की कसौटी पर कसने के कारण उन्हें प्रखर राष्ट्रवादी माना जाने लगा।
समय समय पर पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा दिये गये भाषणों को 'राष्ट्रचिन्तन' के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है। इसमें एक स्थान पर पण्डित दीनदयाल जी कहते हैं "भूत के आधार पर वर्तमान का विचार कर, भावी की दिशा निश्चित करने का प्रयास नहीं हुआ। इतिहासकार, अर्थशास्त्री एवं राजनीतिज्ञ अलग अलग विचार करते रहे हैं। इन पृष्ठों का विचार समन्वयात्मक है।" पण्डित जी ने आर्थिक क्षेत्र में अपने चिन्तन को 'भारतीय राजनीति : विकास की एक दिशा' के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ।
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी ने समय समय पर अनेक भ्रान्तियों का निरसन भी किया है। भारत में हिन्दुत्ववाद के सन्दर्भ में फैली भ्रांतियों को दूर करते हुए वह लिखते हैं "विश्व की समस्याओं का उत्तर हिन्दुत्ववाद है न कि समाजवाद। क्योंकि यही एक ऐसा जीवन दर्शन है, जो जीवन को एक इकाई के रूप में समझता है और उस पर विचार करता है। वह जीवन को विभक्त नहीं करता। महात्मा गाँधी के विचारों के अनुसार राजगोपालाचारी, विनोबा भावे एवं जय प्रकाश नारायण ने ट्रस्टीशिप का विचार दिया। यह हिन्दू-जीवन की पद्धति के अनुसार है। समाजवादी हों या न हों, दोनों के लिए यह विचार लाभदायक है। यदि हम पाश्चात्य यन्त्र-प्रणाली को अत्यधिक बढ़ावा देंगे तो हम न तो अपनी संस्कृति को बचा पायेंगे और न ही समस्याओं का समाधान कर पायेंगे। हमें धर्मराज्य, लोकतंत्र, सामाजिक समानता और आर्थिक विकेंद्रीकरण को अपना लक्ष्य बनाना होगा। इन सबका सम्मिलित निष्कर्ष ही हमें एक ऐसा जीवन-दर्शन उपलब्ध करा सकेगा, जो आज के भी झंझावतों में हमें सुरक्षा प्रदान कर सके। आप इसे किसी भी नाम से पुकारिए हिन्दुत्ववाद, मानवतावाद अथवा अन्य कोई नया वाद, किन्तु यही एकमेव मार्ग भारत की आत्मा के अनुरुप होगा और जनता में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। अन्य मार्ग और विचार भारत की प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ते।"